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स्व॒ध्व॒रासो॒ मधु॑मन्तो अ॒ग्नय॑ उ॒स्रा ज॑रन्ते॒ प्रति॒ वस्तो॑र॒श्विना॑। यन्नि॒क्तह॑स्तस्त॒रणि॑र्विचक्ष॒णः सोमं॑ सु॒षाव॒ मधु॑मन्त॒मद्रि॑भिः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svadhvarāso madhumanto agnaya usrā jarante prati vastor aśvinā | yan niktahastas taraṇir vicakṣaṇaḥ somaṁ suṣāva madhumantam adribhiḥ ||

पद पाठ

सु॒ऽअ॒ध्व॒रासः॑। मधु॑ऽमन्तः। अ॒ग्नयः॑। उ॒स्रा। ज॒र॒न्ते॒। प्रति॑। वस्तोः॑। अ॒श्विना॑। यत्। नि॒क्तऽह॑स्तः। त॒रणिः॑। वि॒ऽच॒क्ष॒णः। सोम॑म्। सु॒साव॑। मधु॑ऽमन्तम्। अद्रि॑ऽभिः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:45» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) राजा और मन्त्री जनो ! जैसे (प्रति, वस्तोः) प्रतिदिन की (स्वध्वरासः) उत्तम प्रकार क्रियायोगों की सिद्धियाँ जिनसे वे (मधुमन्तः) मधुर आदि गुणों से युक्त (अग्नयः) अग्नि (उस्रा) किरणों की (जरन्ते) स्तुति करते अर्थात् उन्हें प्रशंसित करते हैं और (यत्) जो (निक्तहस्तः) शुद्ध हाथों युक्त (तरणिः) दुःखों से पार करनेवाला (विचक्षणः) अत्यन्त बुद्धिमान् (अद्रिभिः) मेघों से (मधुमन्तम्) मधुर आदि गुणयुक्त (सोमम्) ओषधियों के समूह को (सुषाव) उत्पन्न करता है, उन और उसको आप दोनों सिद्ध करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग शिल्पी विद्वानों के सङ्ग से अग्नि आदि और सोमलता आदि पदार्थों को जान के और अच्छे प्रकार प्रयोग करके अभीष्ट कार्य्यों को सिद्ध करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अश्विना ! यथा प्रति वस्तोः स्वध्वरासो मधुमन्तोऽग्नय उस्रा जरन्ते यद्यो निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षणोऽद्रिभिर्मधुमन्तं सोमं सुषाव ताँस्तञ्च युवां साध्नुतम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वध्वरासः) सुष्ठ्वध्वराः क्रियायोगसिद्धयो येभ्यस्ते (मधुमन्तः) मधुरादिरसोपेताः (अग्नयः) पावकाः (उस्रा) रश्मीन्। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (जरन्ते) स्तुवन्ति (प्रति) (वस्तोः) दिनस्य (अश्विना) राजाऽमात्यौ (यत्) यः (निक्तहस्तः) शुद्धहस्तः (तरणिः) दुःखेभ्यस्तारकः (विचक्षणः) अतीव धीमान् (सोमम्) ओषधिसमूहम् (सुषाव) सुनोति (मधुमन्तम्) मधुरादिगुणोपेतम् (अद्रिभिः) मेघैः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं शिल्पिनां विदुषां सङ्गेनाऽग्न्यादिसोमलतादीन् पदार्थान् विज्ञाय सम्प्रयोज्याऽभीष्टानि कार्य्याणि साध्नुत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही कारागीर विद्वानांच्या संगतीने अग्नी व सोमलता इत्यादी पदार्थांना जाणून त्यांचा चांगल्याप्रकारे उपयोग करून अभीष्ट कार्य सिद्ध करा. ॥ ५ ॥